(धीरज चतुर्वेदी, छतरपुर बुंदेलखंड)
छतरपुर का मुहर्रम शांति, सांप्रदायिक सौहार्द और आपसी मेल मिलाप की अनुकरणीय मिसाल है। देश में कई मौके आये ज़ब खुराफ़ातियों ने कौमी तनाव पैदा करने की कोशिश की, लेकिन समृद्द परम्पराओ में पले बसें छतरपुरवासियो ने नकार दिया। मुहर्रम सरिखे त्याग और इंसाफ की राह पर चलने के पर्व ऐसे इरादों को और मजबूत करते हैं। छतरपुर के मुहर्रम की सबसे बड़ी के विशेषता इसमें हर जाति-समाज की भागीदारी है। बुजुर्ग बताते है कि उदल सिंह का ताजिया तो प्रतिष्ठा हुआ करता था। उस समय महाराज के ताजिए, नगर सेठ के ताजिये और उदलसिंह में ताजीदारी को ले कर प्रतिस्पर्धा हुआ करती थी। उदल गरीब था. पर उसका ताजिया-बुर्राक किसी से कम नहीं होती थी।
इस बात के सैकड़ों गवाह छतरपुर में हैं, जो उदल सिंह द्वारा अपनी पत्नी की नाक की नथ,दुर को गिरवी रख कर ताजिया बनाने और किसी अजीन शक्ति द्वारा नथ वापस करने की घटना बयान करते हैं। उदल सिंह के बारे में एक और घटना खासी चर्चित है। छतरपुर में सभी ताजिए चौक बाजार में रखे. जाने को रिवाज है। एक बार नगर सेठ ने अपना ताजिया ऊंचा दिखाने के लिए उस पर बड़े-बड़े झंडे लगा दिए। इससे पास में रखा उदल का ताजियां छोटा दिखने लगा। उदल को यह नागवार गुजरा और उसने गुस्से में हाथ में तलवकर ले कर नगर सेठ के झंडों को काटने के लिए हाथ बढ़ाया, तभी चमत्कार हुआ और सेठ के ताजियों पर लगे झंडे अपने आप नीचे आ गए। उदल की याद आज भी जीवंत है। सरानी दरवाजे के पास भट्ट की बेहर पर हर साल उदल का ताजिया बनता था ।
यहां ताजियों में राजा का प्रश्रय सदैव से रहा है। महाराज विश्वनाथ सिंह स्वयं नंगे पैर ताजियों के साथ चलते थे। महाराज का ताजिया महल के पिछवाड़े तोपखाना, इमामबाड़े से उठता था। बताते हैं कि महाराज विश्वनाथ सिंह ने अपने राज्य को सुरक्षा के लिए बनारस से पांच सूफीयों को ला कर बसाया था वे थे सैयद वली बाबा, जलाल शाह, कमानी वाले बाबा, सैयद अली और मस्तान शाह। इन पांचों की मजारें आज भी सभी मतावलंबियों की श्रद्धा और उपासना का केंद्र हैं। इन्हीं सूफीयों की प्रेरणा से छतरपुर महाराज मुहर्रम के सभी कार्यक्रमों में भागीदारी निभाते थे ।
पिरुआ छीपी और हल्के बेलदार के नाम यहां के नामी ताजियेदारों में आज भी गिने जाते हैं।
छतरपुर के मुहर्रम की एक विशेषता यहां बनने वाली बुर्राक हैं। कहा जाता है कि यहां कोई तीन सौ साल से यह परंपरा चल रही है । हालांकि कई मुस्लिम मतावलंबी बुर्राक को बुतपरस्ती करार दे कर इस्लामी शरीयत के खिलाफ बताते हैं, लेकिन छतरपुर में मुहर्रम को किसी एक जाति या समाज का पर्व तो माना ही नहीं जाता है। पैगंबर मुहम्मद के नवासे हसने और हुसैन की शहादत के शोक में शामिल होना यहां की सामाजिक प्रतिबद्धता रहती है। इस कारण इंसानी चेहरे वाली बुर्राक को ले कर यहां कभी विवाद नहीं हुए। एक समय था ज़ब बड़ी कुंजराहटी में सबसे बड़ी बुर्राक बनती थी और वह बुर्राक कौमी एकता की बेहतरीन मिसाल थी । बताया जाता है कि कोई 150 साल पहले कड़ा की बरिया निवासी भूखे बच्बा अग्रवाल के कोई औलाद नहीं हो रही थी। उन्होंने मुहर्रम के दौरान बुर्राक के सामने फरियाद की और उसकी मुराद पूरी हुई व उनके यहां लड़का पैदा हुआ, जिसका नाम बैनी रखा गया। तब से बड़ी कुंजरहटी की बुर्राक पर चढ़ने वाले सोने के गहने उनका परिवार देता रहा । इन गहनों की कीमत लगभग 25 हजार रूपए हुआ करती थी और हर साल कर्बला के बाद ये गहने बैनी के कुल के लोगों को लौटा दिए जाते थे। ये हिन्दू परिवार इन गहनों को एक तिजोरी में सुरक्षित रखता था तथा नियमित उन्हें लोबान की धूप लगाता था ।
मुहर्रम के दौरान सुलगते अंगारों पर चलना और उछालने का हेरतअंगेज कारनामें यहां की दीगर विशेषता है। पहले शहर में सात जगहों मोती मस्जिद के पास, इलाहबाद बैंक के पास, हटवारा, मउ दरवाजा के सामने, ग्वालमगरा, डाकखाना चौराहा, महलों पर और नया मोहल्ला में सभी जाति-संप्रदाय के लोग सुलगते शोलों पर चलते थे। बुजुर्ग लोगों का कहना है कि अलाव की परम्परा लगभग 125 साल पहले जबलपुर से आई थी। तलैया मोहल्ले के कस्सी खंगार अलाव खेलने वाले पुराने लोगों में गिने जाते थे। उनकी परंपरा को उनका भतीजा गढ़ी खंगार ने जीवंत रखा।
ताजियों के पहले शहर की सड़को पर अली के शेर। पहले बिलहरी, नौगांव में यह परंपरा थी और बाद में छतरपुर शहर में यह शुरू हुआ। इसमें कुछ युवा अपने शरीर पर शेर सरीखी धारियां और पूंछ लगा कर सड़कों पर घूमते हैं। शुरू में शुक्लाना मोहल्ला के नारायण सेन, मजीद टेलर आदि शेर बना करते थे।
बुंदेलखंड अपनी कौमी एकता की पहचान को आज भीं जिंदादिली से जिन्दा रखे है। संकट और कंटक दूर करने के लिये तजियो के नीचे से निकलने की प्रथा सभी बंधन आज भीं तोड़ रही है।