भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया
देश में राजनैतिक वर्चस्व के लिए तरह-तरह के हथकण्डे अपने की होड लग गई है। कभी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रिय भजन पर विवाद पैदा हो रहा है तो कभी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अन्तिम संस्कार को लेकर वक्तव्य दिये जा रहे है। कहीं संभल के अतीत को भुनाने की कोशिश की जा रही है तो कहीं बिहार लोक सेवा आयोग को निशाना बनाया जा रहा है। कहीं किसान आन्दोलन की आड में दाव खेले जा रहे हैं तो कहीं कथित अन्याय को न्याय में बदलने का मुद्दा उछाला जा रहा है। ज्यों-ज्यों नये साल के आगमन का समय नजदीक आ रहा है त्यों-त्यों राजनैतिक गलियारों में नीतियों-रीतियों के रंग बदल रहे हैं। सत्ताधारी दलों से लेकर विपक्ष तक के मंसूबों ने चारों ओर सुर्खियां पैदा करने वाला वातावरण निर्मित कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी ने पूर्व प्रधानमंत्री भारतरत्न अटल बिहारी वाजपेई की 100 वीं जन्म जयंती पर देश भर में कार्यक्रम आयोजित किये ताकि पार्टी के रेखांकित किये जाने वाले दिग्गज की पारदर्शी छवि का राजनैतिक लाभ लिया जा सके। इसी दौरान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर रघुपति राघव राजा राम वाले लोकप्रिय भजन को विकृत करने के आरोपों का दौर भी शुरू हो गया। कहा जा रहा है कि गांधी जी ने सुन्दर विग्रह मेधाश्याम, गंगा तुलसी शालिग्राम को हटाकर उसके स्थान पर ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सब को सन्मति दे भगवान जोडकर उसके मूल स्वरूप को नष्ट किया था। आरोप लगाने वाले कुछ लोगों के अनुसार यह भजन 17वीं सदी में प्रसिध्द संत स्वामी रामदास ने लिखा था, तो कुछ लोग इसके रचनाकार के रूप में पंडित लक्ष्मणाचार्य का नाम ले रहे हैं। मूल रचना के कथित संशोधनों पर स्वाधीनता के बाद पहली बार कठोर प्रतिक्रिया सामने आई जिस पर कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी दलों ने भारतीय जनता पार्टी को घेरना शुरू कर दिया है। इस दिशा में सोच का आधार, कथित संशोधन का परिणाम और भक्ति साहित्य के स्वरूप को विवेचित किये बिना केवल वोट बैंक के चश्मे से देखा जा रहा है। ऐसी ही घटना पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अन्तिम संस्कार के दौरान सामने आई। कांग्रेस ने इसे लेकर प्रश्नवाचक चिन्हों की झडी लगा दी। निगम बोध घाट सहित अनेक मुद्दों पर जबाब मांगा गया। तो दूसरी ओर उत्तर प्रदेश के संभल में निरंतर चल रही खुदाई, वहां मिल रहे अवशेष और गौरवशाली अतीत की सजीव होती स्मृतियों को भी राजनैतिक आइने से ही देखा जाने लगा है। आक्रान्ताओं से लेकर प्रकृति तक के प्रतिशोधों के परिणामात्मक इतिहास ने एक बार फिर नये सिरे से समीक्षा की आवश्यकता निर्धारित कर दी है। सम्प्रदायगत वोटों को समेटने के लिए नित नये सगूफे छोडे जा रहे हैं। कहीं भगवां और हरे रंगो पर शब्दों की जुगाली हो रही है तो कहीं अल्पसंख्यक और बहुसंख्यकों का शोर तेज हो रहा है। दया और क्रूरता की विपरीत सांस्कृतिक विरासत पर एक नई जंग होने लगी है। बिहार लोक सेवा आयोग को भीड के दबाव में लेने के षडयंत्र तेज हो गये है जिसमें वामपंथी राजनीति के दिग्गजों सहित कोचिंग व्यवसायी भी कूद पडे हैं। पटना की सडकों से सैकडों कोस दूर दिल्ली में स्टूडेन्ट फेडरेशन आफ इण्डिया ने अपने झंडे ऊंचे कर दिये तो गुरु रहमान और खान सर जैसे अनेक कोचिंग व्यवसायी भी आयोग और सरकार को घेरने में विपक्ष के साथ खडे हो गये हैं। जनसुराज पार्टी के मुखिया प्रशान्त किशोर ने तो पटना से लेकर दिल्ली तक की लडाई में साथ देने का वादा तक कर दिया है। ऐसे ही प्रयास किसान आंदोलन के दौरान भी देखने को मिले थे जब किसानों की जमात में असामाजिक तत्वों ने खुलेआम गुण्डागिरी की थी। पंजाब के वयोवृध्द किसान जगजीत सिंह डल्लेवाल की चिन्ता किये बिना वहां के मांगकर्ता और सरकार अपने-अपने रुख पर अडियल रवैया अपनाये दिखती रही। सत्ता और विपक्ष की वोट राजनीति के मध्य समूचा देश पिसता जा रहा है। साम्प्रदायिकता को हथियार बनाकर लडने वालों ने भी अब अपने वक्तव्यों से राष्ट्रवादिता का प्रदर्शन शुरू कर दिया है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के वक्तव्य पर अनेक संतों के विरोध दर्ज होने लगे। वास्तविक संतों की भीड में घुसपैठ बना चुके राजनैतिक संत भी मौका पाकर अपने उद्गारों को भगवां में लपेटकर परोस रहे हैं। ऐसे घटनाक्रम के मध्य प्रयागराज में आयोजित होने वाले महाकुम्भ पर असुरक्षा के काले बादल मडराना स्वाभाविक ही है जिन्हें प्रभावहीन करने हेतु सरकारी तंत्र को अग्नि परीक्षा देना ही होगी। खालिस्तान समर्थक आतंकवादियों तथा इस्लामिक कट्टरपंथियों व्दारा खुलकर सनातन के इस अतिविशिष्ट आयोजन में खलल डालने की धमकी दी जा चुकी है। आन्तरिक और बाह्य चुनौतियों के चल रहे सिलसिले के पीछे केवल और केवल राजनैतिक प्रतिव्दन्दता, सत्ता का लोभ और लाभ के अवसर तलाशने वाले कारक ही उत्तरदायी है जिन्हें सुखद कदापि नहीं कहा जा सकता। अफवाहों के धरातल पर सफलता के महल खडे करने वाले वास्तव में मानवता विरोधी ही है जो निजी स्वार्थ के लिए अपनों को अपनों से लडाने की चालें चल रहे हैं। इतिहास गवाह है कि अकेले एक मीर जाफर ने देश को गुलामी का दर्द दिया था परन्तु अब तो देश में मीर जाफरों की अनगिनत फौजें खडी हो चुकीं है जिन्हें सीमापार से निरंतर सहयोग, संरक्षण और सहायता मिल रही है। ऐसे में राजनैतिक षडयंत्रों से बाहर निकलकर करना होगी नूतन वर्ष की अगवानी तभी आने वाले वर्ष में सौहार्द, शान्ति और भाईचारे की बयार चल सकेगी। यह सब सरकार, सरकारी तंत्र या सरकारी व्यवस्था के जिम्मे न छोडकर आम आवाम को स्वयं अपनी सक्रिय भागीदारी दर्ज कराना होगी तभी राम-रहीम की गंगा-जमुनी संस्कृति का शंखनाद एक बार फिर हो सकेगा और लौट सकेंगी हमारी रूठी हुई खुशियां। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नयी आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।