छतरपुर जिले में छतरपुर तहसील कार्यालय का एक अलग विधान है। जबकि अन्य तहसीलों में ऐसा नहीं है। यहां पर भूमि और भवन का नामांतरण कराने के लिए कभी 1943/44 तो कभी 1958/59 के दस्तावेज संलग्न करना अनिवार्य है। जबकि जिले की अन्य तहसीलों में ऐसा नहीं है।
दिलचस्प है कि नामांतरण का जो आवेदन तहसीलदार द्वारा खारिज कर दिया जाता है, वहीं एसडीएम के यहां अपील करने पर वह नामांतरण स्वीकृत हो जाता है।है न मजे की बात।
जब हमारे देश की संसद ने जम्मू-कश्मीर में धारा 370 खत्म कर एक ही ध्वज और एक ही संविधान लागू कर दिया है तो छतरपुर जिले में यह भेदभाव क्यों किया जा रहा है?
1958/59 में जो भूमि राज्य सरकार के नाम दर्ज है। कालांतर में कब्जेधारी व्यक्ति के नाम तत्कालीन तहसीलदार ने उसी भूमि का पट्टा देकर उसे भू स्वामी घोषित कर दिया और 15/20 साल बाद पट्टाधारी व्यक्ति ने वह भूमि बेच दी।उसी भूमि के सैकड़ों प्लाट काट कर बेचे जा चुके हैं और उन पर चालीस पचास साल से मकान बने हुए हैं।जब उसी भूमि पर एक प्लाट ऐसे जरुरत मंद व्यक्ति ने खरीदा है जो अपनी औलाद के लिए एक आशियाना बनाना चाहता है। किसी ने पुराना घर बेच कर तो किसी ने बीबी के जेवर बेच कर प्लाट खरीदा है, उसे मकान बनाने के लिए बैंक से कर्ज लेना है तो नामांतरण कराना अनिवार्य है। लेकिन वह कोल्हू के बैल की तरह भटक रहा है। वकीलों के जरिए तो कुछ दलालों के जरिए पच्चीस से तीस हजार रुपए देकर नामांतरण करा रहे हैं। जबकि राज्य सरकार ने ऐलान किया है कि रजिस्ट्री के बाद नामांतरण के लिए आनलाइन आवेदन करने पर निर्धारित समय में स्वमेव स्वीकृत हो जाएगा।
58/59 का हवाला देकर जिन लोगों के नामांतरण के आवेदन खारिज किए जा रहे हैं, वहां पर पहले से सैकड़ों मकान बने हुए हैं, यदि वास्तव में जिला प्रशासन ऐसे मामलों में संजीदा है तो सबसे पहले उस विक्रेता (जिसने सबसे पहले प्लाट की बिक्री की) और अभी तक जितने लोगों ने मकान बनाए हैं तथा उन राजस्व अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराए जिन लोगों ने उस भूमि पर नामांतरण स्वीकृत किए हैं? क्या केवल वर्तमान खरीददार ही जुल्म का भागीदार बने।
नौगांव के वरिष्ठ एडवोकेट सूरज देव मिश्रा ने बताया कि नौगांव तहसील में ऐसा कोई नियम लागू नहीं होता।इसी प्रकार राजनगर के अधिवक्ता अवधेश तिवारी ने जानकारी दी है।
भूमि भवन पंजीयन कार्यालय में सरकारी भूमि का पूरा रिकॉर्ड होना चाहिए। ताकि प्राथमिक स्टेज पर खरीददार को यह जानकारी मिल सके कि जिस प्लाट का वह सौदा करने जा रहा है, वह सरकारी है।
कालांतर में किसी प्रशासनिक अधिकारी ने वर्ष 1958/59 में दर्ज शासकीय भूमि के क्रय विक्रय पर रोक लगाई है अथवा नामांतरण के लिए यह शर्त अनिवार्य और विधि सम्मत है तो सरकारी प्रेस नोट जारी कर जिला प्रशासन को पूरी स्थिति से आम जनमानस को लोकहित में अवगत कराना चाहिए।