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प्रयश्चित ही कर्म फल से मुक्ति का आधार

 यह ठीक है कि जिस व्यक्ति के साथ अनाचार बरता गया अब उस घटना को बिना हुई नहीं बनाया जा सकता। सम्भव है कि वह व्यक्ति अन्यत्र चला गया हो। ऐसी दशा में उसी आहत व्यक्ति की उसी रूप में क्षति पूर्ति करना सम्भव नहीं। किन्तु दूसरा मार्ग खुला है। हर व्यक्ति समाज का अंग है। व्यक्ति को पहुँचाई गई क्षति वस्तुत: प्रकारान्तर से समाज की ही क्षति है। उस व्यक्ति को हमने दुष्कर्मों से जितनी क्षति पहुँचाई है उसकी पूर्ति तभी होगी जब हम उतने ही वजन के सत्कर्म करके समाज को लाभ पहुँचाये। समाज को इस प्रकार हानि और लाभ का बैलेन्स जब बराबर हो जायेगा तभी यह कहा जायेगा कि पाप का प्रायश्चित हो गया और आत्मग्लानि एवं आत्मप्रताड़ना से छुटकारा पाने की स्थिति बन गई।  

सस्ते मूल्य के कर्मकाण्ड करके पापों के फल से छुटकारा पा सकना सर्वथा असम्भव है। स्वाध्याय, सत्संग, कथा, कीर्तन, तीर्थ, व्रत आदि से चित्त में शुद्धता की वृद्धि होना और भविष्य में पाप वृत्तियों पर अंकुश लगाने की बात समझ में आती है। धर्म कृत्यों से पाप नाश के जो माहात्म्य में बताये गये हैं उनका तात्पर्य इतना ही है कि मनोभूमि का शोधन होने से भविष्य में बन सकने वाले पापों की सम्भावना का नाश हो जाये। ईश्वरीय कठोर न्याय व्यवस्था में ऐसा ही विधान है कि पाप परिणामों की आग में जल मरने से जिन्हें बचना हो वे समाज की उत्कृष्टता बढ़ाने की सेवा-साधना में संलग्न हों और लदे हुए भार से छुटकारा प्राप्त कर शान्ति एवं पवित्रता की स्थिति उपलब्ध कर लें। 

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